मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

बुंदेलखंड: एक अच्छे आदमी का परिचय




पंडित प्रेम कुमार द्विवेदी चित्रकूट के अतिपिछडे पाठा क्षेत्र के रहने वाले हैं, पेशे से द्विवेदी जी शिक्षक हैं। इन्होने अपने आस-पास पानी की किल्लत देखकर अपने पैसों से समाज के लिय कुआँ खुदवाने का निर्णय लिया। इनके सामाजिक काम को देखकर बाद में इनकी थोडी मदद ग्राम पंचायत ने भी की।

रविवार, 27 अप्रैल 2008

ईमानदारी की एक परिभाषा यह भी

शम्भू भाई उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े तहसील मौरानीपुर में गाड़ी चलाने का काम करते हैं। उन्होंने ईमानदारी को इन शब्दों में परिभाषित किया।
'हमारे यहाँ भागीरथ चौधरी तीन बार पांच - पांच सालों के लिय कांग्रेस के विधायक रहे। भाई साहब वे इतने ईमानदार थे कि उनके बच्चे भूखों मर रहे हैं।'

आज के समय में क्या यही है, ईमानदारी की सच्ची परिभाषा।

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

पूछताछ नहीं पूँछताँछ होती है यहाँ



पूँछताँछ के लिय आपको कन्नौज के सरायबेरा बस अड्डे तक जाना होगा, अगर कोई पूछताछ रहती हो तो हमसे कर लो ...

ये कैसा है नशा











कानपुर के फेथफुल पुलिस चौकी से २०० कदम की दुरी पर एक चौराहे पर तीन लडके मिले। ये नशा कर रहे थे। नशा था सोल्युशन का। सोल्युशन एक खतरनाक रसायन है। जिसका इस्तेमाल ट्यूब चिपकाने में किया जाता है। ये बच्चे मजे में इसका सेवन कर रहे हैं। कोई इन्हे रोकने वाला नहीं.......

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

चित्रकूट का पाठा क्षेत्र - भूख और गरीबी











































चित्रकूट में पाठा क्षेत्र और भूख-गरीबी को पर्यायवाची मना जाता है। पिछ्ले दिनों अभिमन्यु भाई की मदद से उस इलाके को पास से देख सका। वहां उनका 'सर्वोदय सेवा आश्रम बहुत सुंदर काम कर रहा है। वहां मिले अपने तीन साथियों को भी मैं कैसे भुला सकता हूँ, जिन्होंने मुझे वह क्षेत्र दिखाया। जिस इलाके से मैं होकर आया हूँ, उसका नाम है बड्गढ़।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

मन्दिर में चूने की बोरी


















यह खजुराहो का प्रतापसुरी मन्दिर है। यह काफी दिनों से बंद पड़ा हुआ है। पिछ्ले दिनों मेरा यहां जाना हुआ। कुछ लोगों से बात हुई। तो उन्होंने बताया कि यह मन्दिर काफी दिनों से बंद पड़ा हुआ है। इसका इस्तेमाल चुने की बोरी और रेत रखने में किया जा रहा है। बताया जाता है इसके अंदर एक पुराना शिव लिंग भी रखा हुआ है। ईश्वर में आस्था रखने वालों के लिय यह शर्म की बात है। हमे इस सम्बन्ध में एक बार सोचना जरुर चाहिय.

यह भारत में ही रहते हैं




महोबा बुंदेलखंड के अन्दर आने वाले एक जिले का नाम है। इसके पास में ही है चरखारी जिसे बुंदेलखंड का कश्मीर कहते हैं। जिसके अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा गाँव है टीलवापुरा। ये ७५ साल के बुजुर्ग अपनी ७० साल की पत्नी के साथ इसी गाँव में रहते हैं। ये बुजुर्ग अपनी रीढ़ की हड्डी की बीमारी की वजह से पिछ्ले १० सालों से चलने फिरने के काबिल नहीं हैं। इनकी पत्नी कंडे और लकडी बेचकर इनका लालन-पालन कर रही है। ज़रा सोचियेगा इस देश में कितना गम है, और आपका गम कितना कम है। इनका गम देखेगे तो अपना गम कम लागने लगेगा।

रशीद साहब ने कमाल कर दिया

भाई साहब का नाम है रशीद सद्दीकी। बांदा के बड़े पत्रकार हैं। इनकी कृपा से इन दिनों बांदा की कई सडके चमक उठी हैं। हुआ यू कि जनाब ने अपने विश्वस्त सूत्रों के हवाले से यह ख़बर छाप दी कि राहुल गाँधी हवाई रास्ते से नहीं सड़क के रास्ते से बांदा आयेगे। बस इस ख़बर के छपने भर की देर थी। रातों-रात सडके दुरुस्त कर दी गई। वैसे कौन सा राहुल को सड़क के रास्ते आना था।
जय हो रशीद साहब की।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

हनुमान धारा के जल का उपयोग


हनुमान धारा चित्रकूट का एक तीर्थ स्थल है। कहते आज भी इस धारा के आस-पास पवन पुत्र हनुमान निवास करते हैं। इस धारा से निकलने वाले जल को लेकर यह कहा जाता है कि इसके जल के सेवन से पेट की कैसी भी बीमारी हो दूर हो जाती है।
आप देख सकते है जिस जल को पीने के लिय सैकड़ों - हजारों किलो मीटर से से भक्त आते हैं, उसका इस्तेमाल भाई साहब कपडे की चमकार बढ़ाने में कर रहे हैं, है किसी में जो उन्हें रोक सके

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

बुंदेलखंड कैमरे की नजर में ...


हाल में बुंदेलखंड जाना हुआ, वहां के हालात के लिए क्या लिखू? बहुत सारे लोग बहुत कुछ लिख ही रहे हैं, फिलहाल आपके सामने कुछ तस्वीर लेकर आया हूँ। कहते हैं एक तस्वीर १००० शब्दों की बात कह जाती है। कल फ़िर बुंदेलखंड जाना है, जल्दी ही ब्लॉग पर वापसी होगी, तब तक के लिय विदा....











































दोगली निति

हाल ही में केरल में उस संगठन का एक राष्ट्रीय अधिवेशन सम्पन्न हुआ। इसने अधिवेशन में शामिल अपने मुस्लिम प्रतिनिधियों को नमाज़ पढ़ने के लिय सभा के बीच में अंतराल दिया। इस नियम में कुछ भी ग़लत नहीं है। हमें भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सभी धर्मों का सम्मान करना ही चाहिय।
लेकिन इस पार्टी के दोगली निति पर तब कोफ्त होती है, जब इसका कोई कार्यकर्ता (नेता) कोलकाता में मन्दिर में भगवान की पूजा-अर्चना करने की वजह से पार्टी से निकाल दिया जाता है। पार्टी को ऐसे मन्दिर जाने वालों पर सम्प्रदायिक होने का अंदेशा होता है। पार्टी की उलझन जो भी हो बहरहाल इसे कहा तो दोगली निति ही जायगा ना!

तस्वीर की ज़ुबानी कहानी - हंगामा है क्यों बरपा

सरकार कहती है कि मतदाता पहचान पत्र बनवाओ, दूसरे शहर में इसे बनवाने वालों की क्या हालत होती होगी खुदा जाने। यहाँ कल्यानपुरी का हाल आपके सामने रखते हैं। यह मोहल्ला दिल्ली में ही आता है।
इन तस्वीरों को उपलब्ध कराने वाले युवा पत्रकार अवधेश कुमार मल्लिक से पहचान पत्र बनवाने आय कुछ लोगों ने शिकायत की, 'यहाँ जिन लोगों ने कुछ पैसे खर्च किय उनका काम तो आसानी से हो गया, जो पैसे नहीं दे रहे उनको बेवजह परेशान किया जा रहा है। '





















गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

ग्रामीण विकास की पत्रिका 'सोपान स्टेप'

सोपान स्टेप संवाददाता उमाशंकर के ब्लॉग से आपतक दो शब्द सोपान के संबध में,
नेहरू प्लेस स्थित वह जगह जो अपने और अपनों से मिलने का ठीकाना है।
पिछले ढाई सालों सोपान के साथ हूँ, सोपान में कार्यरत हूँ।
यहाँ काम करते हुय यह एहसास मन में है कि यहाँ पत्रकारिता के नाम पर हम कुछ और नहीं कर रहे, पत्रकारिता हीं कर रहे हैं।

फिलहाल उमाशंकर को पढिय-
ग्रामीण विकास को समर्पित पत्रिका सोपान step दो वर्ष से भी ज्यादा का सफर तय कर चुकी है। इस सफर में हमने न केवल ग्रामीण अंचलों की समस्याओं; बल्कि ग्रामीण परिवेश के निवासियों की उपलब्धियों और मुद्दों के आलावा विकास से जुडे राष्ट्रीय मुद्दों से आपको भी जोड़ने का प्रयास किया है। अपने लड़खड़ाते हुए क़दमों के बावजूद साहस नहीं खोया और धीरज से अपने काम में जुटे रहे। शायद इसी का परिणाम है कि सोपान को आज आप सब की प्रशंसा प्राप्त हो रही है। छ्होते से इस सफर मी हमने ढेरों अनुभव भी बटोरे हैं, कभी मिलकर साझा करेंगे कि, मीडिया जब विकास कि बात करता है तो उसके सामने किस तरह कि चुनोतियाँ आती हैं इस व्यावसायिक युग में; यह सोचने का विषय है। कितना सहयोग अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों का विकास पत्रकारों को इस गलैमरस मीडिया के युग मे मिलता है, इस पर भी चर्चा करेंगे।

यदि आप सोपान देखना-पढ़ना या इसके ग्राहक बनना चाहते हैं, तो आप लिख सकते हैं, फ़ोन कर सकते हैं या चाहे तो आकर मिल भी सकते हैं -
पता और ठीकाना है:-
इंडिया फाऊंडेशन फॉर रूरल डेव्ल्प्मेंट स्टडीज ४९-५० रेड रोज बिल्डिंग, रूम नंबर-४०६ नेहरू प्लेस, नई दिल्ली - ११००१९फोन - ०११-४१६०७२४८
०११-४१६०७४७२

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

चली गईं सरोद रानी

-अशोक चक्रधर

कहते हैं कि जब मौत आती है तो इंसान को कहीं भी शरन नहीं मिलती, पर उलटा हो गया। मौत को शरन मिल गई। आठ अप्रैल दो हज़ार आठ को शरन रानी नहीं रहीं।
आज वे अस्सीवें वर्ष में प्रवेश करतीं पर एक दिन पहले ही अपनी ज़िन्दगी की सी. डी. रिलीज़ करा के सीढ़ी चढ़ गईं। यस्टरडे तक सरोद गुंजाया और अपना म्यूज़िक टुडे को दे गईं। लोग उन्हें कहते थे सरोद रानी। सघन अंधेरे में जैसे कौंध-कौंध उठती हो सरोद की विद्युत, उस तड़ित्तरंगीय गतिमयता में प्रारम्भ हो जाए आलाप, जो धीरे-धीरे बढ़ता जाए, झाला की नक्षत्र-माला तक। तारामंडल खिल उठें और फैल जाए उजाला, गुरु शरन रानी के नाम का।
शरन रानी जी का जन्‍म 9 अप्रैल, 1929 को दिल्‍ली के एक जाने माने कायस्‍थ माथुर परिवार में हुआ। उस कायस्थ परिवार में साहित्‍य, संगीत, कलाओं के प्रति प्रेम भाव तो था लेकिन लड़कियां उसमें आगे बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लें इसकी मनाही थी। धुन की धनी शरन जी ने प्रतिकूल वातावरण को बचपन से ही अनुकूल बना लिया, और आगे भी संघर्ष करती रहीं।
सरोद घर में बड़े भैया लाए थे अपनी श्रीमती जी को सिखाने के लिए, पर नन्हीं शरन रानी ने देखा कि भाभी तो खान-पान, घर-परिवार और गृहस्‍थी में डूबी हुई हैं, कहां सीखेंगी। लिया एक सिक्‍का, छेड़ दिए स्‍वर, आनंद आया, सरगम निकाली। सा-रे-ग-म निकल आए तो फिर क्‍या था, वह वाद्य इनका हो गया और ये उस वाद्य की हो गईं।
बहुत सारे प्रथम जुड़े हैं उनके नाम के आगे। गुरु शरन रानी प्रथम महिला थीं जिन्‍होंने सरोद जैसे मर्दाना साज को संपूर्ण ऊंचाई दी। वे प्रथम महिला थीं जो संगीत को लेकर पूरे भूमंडल में घूमीं, विदेश गईं। वे प्रथम महिला थीं जिन्‍हें सरोद के कारण विभिन्न‍ प्रकार के सम्‍मान मिले। वे प्रथम महिला थीं जिन्‍हें सरोद पर डॉक्‍टरेट की उपाधियों से नवाज़ा गया। वे प्रथम महिला थीं जिन्‍होंने पंद्रहवीं शताब्दी के बाद बने हुए वाद्य यंत्रों को न केवल संग्रहीत किया बल्कि राष्‍ट्रीय संग्रहालय को दान में दे दिया। वे प्रथमों में प्रथम थीं।
उनके प्रयत्नों में आई कभी कमी नहीं।
उनकी संगीत साधना कभी थमी नहीं।

नेहरू जी कहा करते थे कि शरन रानी तो हमारी कला और संस्‍कृति की राजदूत हैं। सही कहा था पंडित जी ने, शरन जी देश-देशांतर तक घूमीं। सरोद को उन्‍होंने विश्‍व-विख्‍यात किया।
उनके गुरु बाबा अलाउद्दीन खां गजब के इंसान थे। वे संसार का हर बाजा बजा सकते थे। जो चीज़ न भी बजे वह भी बज उठती थी उनके स्पर्श से।
युवा और अपूर्व सुन्दरी शरन रानी को यों ही शरन में नहीं लिया बाबा ने। शिष्यों को गाय की सानी करनी पड़ती थी, चिलम भरनी पड़ती थी। रसोई में समय देना होता था। और दस-दस घण्टे के रियाज़ की पाबन्दी। संभ्रांत-रईस परिवार की शरन रानी ने औघड़ बाबा की सारी बात मानीं।

नई पीढ़ी को अगर बताना हो कि क्‍या होती है गुरु-शिष्‍य परंपरा, क्‍या होता है परंपरा प्रदान करने की प्रक्रिया का सिलसिला, तो बाबा और शरन रानी जी के आपसी रिश्‍तों को बड़ी गहराई से समझना होगा। गुरु ऐसे ही विद्या नहीं देता, जब तक कि शिष्‍य में पूरी लगन न हो, निष्‍ठा न हो। उस निष्‍ठा की प्रतिमूर्ति बनकर शरन रानी बार-बार मैहर जाती रहीं। संगीत सीखना है तो गुरुभक्ति निष्ठा से करनी होगी। उन्‍होंने ठान लिया कि सीखकर ही मानेंगी। गगन को गुंजा देंगी सरोद के सुरों से।
कला मर जाती है, अगर जीवन-साथी सहारा न दे। पति भी सरोद जैसा ही मिला। सुरीला सुल्तान सिंह बाकलीवाल। उन्होंने शरन जी को सदा उत्साहित किया और आगे लाने के लिए पीछे-पीछे रहे।
आश्चर्य की बात है कि बाबा विभिन्न वाद्यों को सम्पूर्ण कुशलता से बजाते थे, कहां सितार, कहां बांसुरी, कहां सरोद! वे विलक्षण स्वर-सम्राट थे और सारे वाद्य-यंत्रों से प्‍यार करते थे। वाद्यों के प्रति यह प्रेम, परंपरा के रूप में शरन रानी जी के पास आया। वे भी वाद्यों से प्‍यार करने लगीं। पति सुल्तान सिंह बाकलीवाल के सहयोग से वाद्य-यंत्रों का एक विशाल भंडार उनके पास इकट्ठा हो गया। कहीं वो आदिवासी क्षेत्रों से अनूठे प्राचीन वाद्य लेकर आईं, कहीं उनको ग्रामीण लोक वाद्य मिले। तरह-तरह के तंत्री-वाद्य और ताल वाद्य। वे सब के सब उन्‍होंने भारत सरकार के अधीन राष्‍ट्रीय संग्रहालय को दान में दे दिए। 'शरन रानी बाकलीवाल गैलरी' बनी, जिसका उद्घाटन किया था श्रीमती इंदिरा गांधी ने। इस संग्रहालय को शरन जी निरंतर संपन्‍न करती रहीं। उनके वाद्यों पर डाक टिकट जारी हुए। सरोद पर भी, बांसुरी पर भी और मृदंग पर भी।

क्‍या चाहिए कलाकार को? पैसा। पैसा तो शरन जी के पास पहले से था। पैसे के लिए तो वो संगीत के पीछे भागी नहीं। संगीत तो एक प्‍यास थी, तड़प थी, एक आकर्षण था, एक चुंबक थी जिसके पीछे शरन दीवानी सी रहती थीं। क्‍या चाहिए कलाकार को? यश। हां, यश चाहिए। किसी के पीछे दौड़ी नहीं शरन जी। डॉ. ज़ाकिर हुसैन द्वारा सम्‍मानित किया गया। आर. के. नारायण द्वारा उन्‍हें पद्मभूषण से सम्‍मानित किया गया। न जाने कितने मंचों पर, न जाने कितनी बार उन्‍हें सम्‍मानित किया गया। सम्‍मान शरन जी के पीछे-पीछे दौड़ा, सम्‍मानों के पीछे शरन जी कभी नहीं दौड़ीं।
व्‍यवहार और शास्‍त्र दोनों साथ-साथ चलते हैं। जहां एक ओर शरन रानी जी ने सरोद को बजाया, वहीं उसके शास्‍त्रीय पक्ष को भी अनदेखा नहीं रखा। उन्‍होंने सरोद को लेकर काफी शोध-कार्य किया। कालिदास के 'मेघदूत' से यह सूत्र निकाला कि मेघों ने अपना रास्‍ता बदल लिया था चूंकि उनके अधिक नीचे आने पर अलकापुरी में रहने वाले संगीतकारों के साज़ों के सुर उतर जाते थे। यह बात तय है कि उन्‍हीं साज़ों के सुर उतरते हैं जो चमड़े से बने हुए होते हैं। सरोद एक ऐसा ही वाद्य है जिस पर चमड़ा लगा रहता है। यानी सरोद एक प्राचीन भारतीय वाद्य है। वे कहती थीं कि सरोद नाम के मूल में 'स्वरोदय' रहा है। संगीत के कुछ विद्वान मानते हैं कि सरोद वाद्य मध्य एशिया से आया। वे मतभेद रख सकते हैं। शोध और भी होनी चाहिए। वैसे शोध हो भी जाए तो लाभ क्या? एक समाचार चैनल में शरन जी के देहावसान की ख़बर देते समय उन्हें सितार-वादिका बताया जा रहा था। सरोद और सितार में उनके लिए कोई फ़र्क ही नहीं है। क्या कहें उनको, याद कर लिया यही क्या कम है।

बाबा अलाउद्दीन खां व्यवहार से शास्त्र गढ़ते थे। उन्होंने कितने ही नए वाद्य बना दिए। उनका बनाया हुआ एक सितार बैंजो मेरे पास भी है। मैहर बैंड बनाया था बाबा ने जिसमें अनेक सुरीले वाद्यों का समन्वय था।
शरन जी ने एक बार बताया कि कठिन परीक्षा लेते थे बाबा। सरोद पर कोई एक मींड़-मुरकी निकल नहीं पा रही थी। बाबा ने कई बार समझाया, लेकिन स्वरों के बीच से श्रुतियों की सही लड़ी पकड़ में नहीं आ रही थी। बाबा ने अपने हुक्के में गहरा कश मारा और चिलम से निकली एक लहराती हुई सी चिंगारी। बाबा ने कहा ऐसे, ऐसे, हां ऐसे निकालो। सरोद का तार उँगली के दबाव के साथ परदे पर चिंगारी की तरह लहराया और वह नाद अधिकतम सुरीला होकर निकल आया।

बाबा जब देह त्याग कर गए तो न तो उनके परम शिष्य रवि शंकर आ सके न उनके दूसरे कुटुम्बी जन। दिल्ली से दौड़ी-दौड़ी गई थीं शरन रानी। चाहती तो थीं बाबा की मैयत को कंधा देना, लेकिन परंपरावादियों ने मना कर दिया। अल्लाह का भेजा हुआ कोई एक मौलवी था जिसने कहा कि मिट्टी की पहली मुट्ठी शरन रानी की होगी।
ऐसे गए तो क्या गए जैसे बादल की छाया चली जाती है। जाओ तो ऐसे कि बादलों के जाने के बाद भी आंसुओं की तरह बरसते रहो। शरन जी की याद में आते हुए आंसू सिर्फ दुःख के नहीं हैं। इन बूंदों में हमारी शास्त्रीय संगीत की साधनाओं को सलाम है। कल उनकी चिता से जो लहराती हुई चिंगारियां निकल रही थीं, उनसे कितने लोगों ने श्रुतियों और मींड़ों को पकड़ा होगा। लोग आँख मींड़ कर आंसू पौंछ लेंगे पर वैसी मींड़ कौन निकालेगा?

सम्पर्क:- श्री अशोक चक्रधर
जे -११६, सरिता विहार,
नईं दिल्ली - ११००७६
०११- २६९४९४९४,
०११- २६९४१६१६,
फैक्स- ०११-४१४०१६३६

बैंगलूरू में आयोजित एक रेव पार्टी एवं फैशन शो द्वय का नज़ारा


























































































































































क्या आप कुछ कहना चाहेंगे?
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क्या आज़ादी का अर्थ यही है?





























































































































आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम