गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

साढ़े तीन साल की कैसी डाक्टरी आजाद साहब??


डीडीएस कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं।


पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था।


अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है।


बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन।

स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा।

यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है।

बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए।

1 टिप्पणी:

poonam ने कहा…

bilkul theek kaha aapne. isse jhola chaap doctors ki taadad or badh jayegi.log beemari se kam inke ulte seedhe ilaj se jyada behal ho jayenge.

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम