सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

उंगलबाज का पहला प्रकाशीत लेख, स्वागत करें

उंगलबाज.कॉम


मुझे नहीं पता, आपने उंगलबाज का नाम पहले कभी सुना है या नहीं सुना। यह भारतीय मीडिया उद्योग का सबसे अविश्वनीय नाम है। इंडिया टीवी से भी अधिक अविश्वनीय। पंजाब केसरी से भी अधिक अविश्वनीय। डर्टी पिक्चर की सिल्क की तरह, जिसका नाम बदनाम होकर हुआ।



हमारी विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हमने दुनिया के एक मुल्क में उनके प्रधान की मौत की जानकारी उनके जीते जी छाप दी। हमारी वेवसाइट पर हिट्स एकदम से बढ़ गया। खबर आते ही पूरे देश में मारपीट, आगजनी शुरू हो गई। मानों वे सभी लोग इस खबर के वेवसाइट पर लगने के इंतजार में ही थे। कोई भी हमारा तो कुछ ना बिगाड़ पाया लेकिन अपने देश के करोड़ों रुपए की संपति की ऐसी कम तैसी जरूर कर दी। यहां बताता चलूं कि हमारा डॉट कॉम इतना अधिक अविश्वसनीय है कि हम आज तक पता नहीं लगा पाए कि यह खबर वेवसाइट के लिए भेजी किसने थी? और वेवसाइट पर लगाई किसने? इसके बावजूद हमें गर्व है कि पूरे मीडिया जगत में हम अविश्वसनीयता का काम पूरी विश्वसनीयता के साथ करते हैं। हम किसी ईमानदारी का दावा नहीं करते और आपको आगे रखने का वादा नहीं करते।



वैसे जिस मुल्क के प्रमुख की बात मैं कर रहा था, वहां से हमारी विदाई हो चुकी है। हमें बाहर निकाल दिया गया है। अब सीआईए और केजीबी मिलकर उन सूत्रों को तलाशने की केाशिश में लगी है, जिसके इशारे पर ऐसा किए जाने का उन्हें अनुमान है।
वैसे सच कहूं तो भारत हमारे लिए एक मुफीद ठीकाना साबित हुआ है। यहां उंगलबाजी की पर्याप्त गुंजाइश नजर आ रही है क्योंकि यहां किसी के मरने की परवाह किसी को नहीं है। यहां के लोग की याद्दाश्त बेहद कमजोर है। मुझे नहीं लगता कि कोलकाता में कुछ होता है तो हावड़ा के लोग उसकी परवाह करते हैं। बड़ोदरा की चिन्ता अहमदाबाद वालों को रहती होगी। इसी तरह भोपाल के हक के लिए सिहोर सामने नहीं आता। बेतिया की चिन्ता मोतिहारी को नहीं है। बिलासपुर वाले दुर्ग की घटनाओं से नावाकिफ हैं। गुमला वालों को गाड़ी लोहरदगा मेल की जानकारी नहीं है। दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता मे एमएनसी की नौकरी करने वाले वेदान्ता और पॉस्को में अपने लिए रोजगार के अच्छे अवसर ही देख पाते हैं। इससे अधिक जानने की उन्हें जरूरत नहीं है। अधिकांश अखबार और चैनलों को अपने लिए पत्रकार कम दलाल चाहिए जो वसूली एजेन्ट के तौर पर काम कर सके। उसके बाद भी दावा यह कि सच को रखे आगे और अंदर सच का सामना करने की कुव्वत नहीं। सच कहें तो पड़ोस की चिन्ता नहीं है लेकिन सारा भारत एक है।
यदि इस देश की जनता एक होती। इस देश के लोगों को कुव्वत होता तो क्या भोपाल गैस कांड हो जाता, नन्दीग्राम करने का कोई साहस करता, गुजरात के दंगे इतनी सहजता से ऑपरेट हो पाते। यह सब शर्मनाक था, जो उसके बाद हुआ, वह उससे भी अधिक शर्मनाक। इतना कुछ हो गया, और हम आज तक उसके लिए जिम्मेवारी तय नहीं कर पाए। सभी हत्यारे खुलेआम घुम रहे। हत्या में शामिल लोगों को हम चुन-चुन कर अपना नेतृत्व सौप रहें हैं। लाखों की संख्या में इकट्ठे होकर उनको सुनने जा रहे हैं। उन एक-एक चेहरों की हमारी अदालतें ठीक-ठीक अब तक पहचान भी नहीं कर पाई है, जिनके गुनाहों की कोई माफी नहीं है। यह स्वीकार करने में क्या परेशानी है कि इस देश में लोकशाही नहीं अफसरशाही मान्य है और लोकतंत्र नहीं नेतृत्व तंत्र चलता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब नन्दीग्राम पर विदर्भ चुप है, विदर्भ के मसले पर बुंदेलखंड बोलने को राजी नहीं। बस्तर का दर्द सिर्फ बस्तर वालों का है। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी एकता सिर्फ किताबी है।



गोधरा में जब रेलगाड़ी मंे हिन्दू सन्यासियों को जलाया गया, किसी मुस्लिम नेता ने इसका विरोध नहीं किया। किया भी हो तो मीडिया ने इसे दिखाने की जरूरत नहीं समझी। इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल जो बयानबाजी से अधिक जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने नहीं किया। बात-बात पर हजारों की संख्या में भीड़ इकट्ठी करने वाली राजनीतिक पार्टियां, टीवी पर आकर अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील कर सकती थीं कि वे आस-पास की मुस्लिम बस्तियों पर पहरा दें। अपने पड़ोसियों की रक्षा करें। गुजरात के पड़ोस के राज्यों से कार्यकर्ता अपने मुस्लिम भाइयों की मदद के लिए आ सकते थे। लेकिन भावनगर का दर्द सूरत का नहीं है, सूरत की चिन्ता दाहोद को नहीं, दाहोद में क्या हो रहा है बड़ोदरा वालों को पता नहीं, और अहमदाबाद से तो पहले ही बड़ी आबादी का विश्वास उठ गया था। गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों के लिए उन सभी लोगों को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जो गुजरात में थे और जो गुजरात में नहीं थे। क्या किया उस दौर में आपने भाषणबाजी से अधिक। क्या गुजरात के सारे हिन्दू दंगों में शामिल थे, जिनके हाथ दंगों में नहीं थे, वे हाथ अपने पड़ोसी को बचाने के लिए क्योें नहीं उठे? हर तरफ सिर्फ बयानबाजी। रैलियों मंे तो लाखों की भीड़ जुटा लेते हैं, नेता। क्या एक नेता ने अपने समर्थकों से अपील की कि वे मुस्लिम बस्तियों की सुरक्षा के लिए स्वयं पहरे पर बैठेंगे और समर्थक भी अपने आस-पास के मुस्लिम बस्तियों की पहरेदारी करें। दूसरे राज्यों से कितने नेता गुजरात गए, उनकी सुरक्षा की चिन्ता लेकर। इस देश में रैलियों के लिए लोग निकलते है, राम मन्दिर बनाने और बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए निकलते हैं, नक्सलियों द्वारा किए गए हत्या के समर्थन में निकलते हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का मंसूबा पाले आतंकवादियों के समर्थन में निकलते हैं। उसके बाद भी आप जोर दे-देकर यह मुझे विश्वास दिलाना चाहते हैं कि बचाने वाले के हाथ, मारने वाले से अधिक बड़े होते हैं। इतना कुछ हो जाने के बाद भी अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए, क्या आप सच में इन बातों पर यकिन करते हैं?



इस देश की एक अरब जनता, चंद हजार नेताओं, चंद हजार अफसरशाह और चंद लाख बाबूओं को गाली देते हुए उठती है और गाली देते हुए सो जाती है। इन एक अरब लोगों को किसी सरकारी अस्पताल में इस बात की जांच अवश्य करानी चाहिए कि इनकी रीढ़ की हड्डी अब तक सही सलामत बची भी है या नहीं? मेरी चिन्ता इतनी भर है कि कब तक इस मुल्क के लोग खुद को झूठे दिलासे देते रहेंगे, एक अरब की संख्या में होकर रोते, गिड़गिड़ाते और रीरियाते रहेंगे। कब तक यह झूठ चलता रहेगा कि देश एक है और इस मुल्क की मालिक यहां की जनता है। जबकि सच्चाई यह है कि जनता बाबूराज में अफसरशाही के जूते की नोक पर है और नेताओं के ठेंगे पर है। यदि उंगलबाज की बातों से सहमत हैं तो इस भाषण के अंत में अपने ठेंगे का निशान लगाएं क्यांेकि उंगलबाज जानता है कि आपके बस की इससे अधिक कुछ नहीं है।

(उंगलबाज.कॉम, हमारी विश्वसनीयता संदिग्ध है)

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज, पेड न्यूज ....''सोचिए जरा!''

देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाले अखबार का दावा करने वाले उत्तर प्रदेश में अच्छी प्रसार संख्या वाला एक अखबार अपने पाठकों के साथ किस कदर छलावा, धोखा कर रहा है उसे उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की कवरेज में देखा जा सकता है। विधानसभा चुनाव के पहले इस अखबार ने आओ राजनीति करें नाम से एक बड़े कैम्पेन की शुरूआत की। अखबार ने पहले पेज पर एक संकल्प छापा कि वह चुनाव को निष्पक्ष तरिके से कवरेज और पेड न्यूज से दूर रखेेगा लेकिन इस संकल्प की कैसे ऐसी-तैसी हो रही है पाठकों को तो जानना ही चाहिए, प्रेस काउन्सिल और चुनाव आयोग को भी इसका संज्ञान लेना चाहिए।



अखबार में एक तरफ यह संकल्प छापा गया तो दूसरी तरफ विज्ञापन विभाग ने उम्मीदवारों से विज्ञापन का पैसा वसूलने की नई तरकीब निकाली। उसने सवा लाख, सवा दो लाख, पांच लाख और छह लाख का एक पैकेज तैयार किया। इसके अनुसार जो उम्मीदवार यह पैकेज स्वीकार कर लेगा उसके विज्ञापन तो क्रमशः छपेंगे ही, नामांकन, जनसम्पर्क आदि में उसकी खबरों को वरीयता दी जाएगी। साथ ही उसका इंटरव्यू छपेगा और अखबार में इन्सर्ट कर उसके पक्ष में पांच हजार पर्चे बांटे जाएंगे। प्रत्याशियों पर इस पैकेज को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने के उद्देश्य से प्रत्याशियों और उनकी खबरें सेंसर की जाने लगीं। जनसम्पर्क, नुक्कड़ सभाएं आदि की खबरें पूरी तरह सेंसर कर दी गई या इस तरह दी जाने लगीं कि उसका कोई मतलब ही न हो। केवल बड़े नेताओं की कवरेज की गई। प्रत्याशियों को विज्ञापन देने पर यह सुविधा भी दी गई कि उनसे भले 90 रुपए प्रति सेंटीमीटर कालम का दर लिया जाएगा लेकिन उसकी रसीद दस रूपया प्रति सेंटीमीटर कालम दिया जाएगा ताकि वह चुनावी खर्च में कम धन का खर्च होना दिखा सकें। इसके अलावा स्ट्रिंगरों को यह लालच दिया गया कि प्रत्याशियों से पैकेज दिलाने में सफल होने पर उन्हें तयशुदा 15 प्रतिशत कमीशन के अलावा अतिरिक्त कमीशन तुरन्त प्रदान किया जाएगा।



इतनी कोशिश के बावजूद प्रत्याशियों ने बहुत कम विज्ञापन उस अखबार को दिए। पैकेज तो इक्का-दुक्का लोगों ने ही स्वीकार किए। इसके पीछे कारण यह था कि प्रत्याशी चुनाव आयोग के डंडे से बहुत डरे हुए हैं। एक दूसरा कारण यह भी है कि उन्हें अखबार में विज्ञापन छपने से कुछ ज्यादा फायदा न होने की बात ठीक से मालूम हैं। उन्होंने पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में देखा है कि लाखों रूपए खर्च कर रोज विज्ञापन देने वाले प्रत्याशियों को भी बहुत कम वोट मिले और जिनके बारे में अखबारों खबर छपी, न विज्ञापन वे बहुत वोट पाए और कई तो चुनाव भी जीत गए। चुनाव में करोड़ों की वसूली का सपना देखने वाले उस अखबार का मंसूबा जब पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो उसने एक हैरतअंगेज काम कर डाला। चार फरवरी के अंक में पहले पन्ने पर उसने एक खबर प्रमुखता से प्रकाशित की। यह खबर कथित सर्वे के आधार पर थी। इसमें कहा गया था कि 35 फीसदी मतदाता अपने प्रत्याशियों को नहीं जानते। यह पूरी तरह अखबार द्वारा प्रायोजित खबर थी। एक जिले में 200 लोगों को फोन कर यह सर्वे कर लिया गया। अब आप ही अंदाजा लगाइए कि अमूमन एक विधानसभा क्षेत्र में तीन लाख से अधिक वोटर होते हैं। ऐसे में कथित रूप से 200 लोगों से फोन पर बात कर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि वोटर अपने प्रत्याशियों को नहीं जानते कितना उचित है। लेकिन इस अखबार ने उत्तर प्रदेश में ऐसा किया। इसके पीछे उसका मकसद प्रत्याशियों में यह संदेश देना था कि उनके बारे में मतदाताओं को पता नहीं है, इसलिए उन्हें खूब विज्ञापन देना चाहिए।



लगता नहीं कि इस अखबार की इस गंदी हरकत के प्रभाव में कोई प्रत्याशी आने वाला है। पूरे चुनाव में इसने ऐसी कई प्रायोजित खबरें छापीं जिनका मकसद प्रत्याशियों को विज्ञापन और पेड न्यूज के लिए उकसाना था। बसपा और मायावती के दो पेज के दो बड़े खबर नुमा विज्ञापन छापना एक तरह का पेड न्यूज ही तो था। इस दो पेज के कथित विज्ञापन में कहीं नहीं लिखा था कि यह किसके द्वारा जारी किया गया है। इसके पर दाहिने कोने पर मीडिया मार्केटिंग इनिशिएटिव लिखा गया था। इस अखबार के संपादक और उनकी मंडली को बताना चाहिए कि क्या हिन्दी अखबार का पाठक इतना सचेत और जागरूक हैे जो उनके इस खबरनुमा विज्ञापन को विज्ञापन ही समझेगा ?
एक सवाल और- पूरे चुनावी कवरेज में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सभाओं की फोटो एक खास एंगिल से क्यों खींची गई और इसे ही क्यों छापा गया जिससे दोनों की सभाओं में अपार भीड़ दिखाई देती है । कोई भी पाठक इस अखबार के किसी भी एडिशन के अंक में यह कलाबाजी देख सकता है। क्या यह पेड न्यूज नहीं है ? सवाल और भी हैं। सोचिए जरा!

आशीष कुमार 'अंशु'

आशीष कुमार 'अंशु'
वंदे मातरम